
“देने के लिए दान, लेने के लिए ज्ञान और त्यागने के लिए अभिमान” — यह वाक्य मात्र शब्द नहीं, अपितु जीवन जीने की सच्ची दिशा है। जब हम दान करते हैं, तो हम सिर्फ धन का नहीं, हृदय की करुणा का, मानवता के प्रति अपने दायित्व का निर्वाह करते हैं। दान का अर्थ है किसी जरूरतमंद के जीवन में आशा की लौ जलाना, उसका संबल बनना। यह दान जब नि:स्वार्थ होता है, तभी वह सच्चे अर्थों में धर्म बनता है।
वहीँ, जीवन में ज्ञान लेना सबसे श्रेष्ठ निवेश है। ज्ञान से ही अज्ञान का अंधकार मिटता है। ज्ञान मनुष्य को सही और गलत में भेद करना सिखाता है। लेकिन यह ज्ञान जब विनम्रता और सेवा के साथ जुड़ता है, तब ही उसका वास्तविक उद्देश्य पूर्ण होता है। गुरुकुल परंपरा में यही सिखाया गया है — ज्ञान केवल अर्जन के लिए नहीं, सेवा और समाज के कल्याण हेतु होना चाहिए।
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और बात जब त्याग की आती है, तो सबसे पहला त्याग होना चाहिए — अभिमान का। अभिमान वह विष है जो व्यक्ति की अंतरात्मा को अंदर से खोखला कर देता है। अभिमान व्यक्ति को दूसरों से बड़ा नहीं, बल्कि अकेला बना देता है। ईश्वर उन्हीं के समीप आते हैं, जो नम्र हैं, सेवाभावी हैं और आत्मविजयी हैं।
शास्त्री कपिल जीवन दासजी का यह अमूल्य विचार — “गरीब समाज नी सेवा एज भक्ती” — हमें याद दिलाता है कि सच्ची भक्ति केवल मंदिरों में दीप जलाने से नहीं, बल्कि गरीबों की सेवा कर उनके जीवन में उजाला भरने से होती है। जो गरीब, पीड़ित और वंचित हैं, उनका दुख अपना मानकर सेवा करना ही प्रभु सेवा है।
श्री स्वामिनारायण गुरुकुल, सलवाव वापी जैसे संस्थानों ने इस भाव को जीवंत किया है। यहाँ ज्ञान भी दिया जाता है, सेवा भी की जाती है और विनम्रता के साथ भक्तों को अभिमान त्यागने का पाठ भी पढ़ाया जाता है। यहाँ के संतों, विद्यार्थियों और सेवाभावियों के आचरण से यह स्पष्ट होता है कि जब मन में सेवा का भाव होता है, तब ही जीवन में प्रभु का वास होता है।
अंततः यही कहना उचित होगा कि यदि हम समाज को कुछ देना चाहते हैं, तो दान दें; यदि जीवन में कुछ लेना है, तो ज्ञान लें; और यदि कुछ त्यागना है, तो अभिमान को त्याग दें — क्योंकि इसी में सच्चा धर्म, सच्चा जीवन और सच्ची भक्ति समाई हुई है।
– शास्त्री कपिल जीवन दास
श्री स्वामिनारायण गुरुकुल, सलवाव वापी



